`कहा जाता है कि परिवार समाज का ढाँचा होता है परिवार से समाज बनता है,समाज से देश और देश से दुनिया | हम विश्व-बंधुत्व की बात करते हैं, राष्ट्रीय एकता की बात करते हैं,सामाजिक व्यवस्था की बात करते हैं, पारिवारिक दायित्व, संतुलन और सामंजस्य की बात करते हैं पर हम हैं कहाँ ? सब-कुछ क्या ठीक व सुचारु रूप से चल रहा है ? जहाँ देश व विश्व-एकता के मूल्यों का दर बढ़ा है वहीँ सामाजिक व पारिवारिक एकता के मूल्यों का दर गिरा है | रिश्तों का मूल्य घटता जा रहा है | कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है जहाँ विज्ञान ने सफलता हासिल की है वहीँ खुद मानव की आवश्यकताओं ने मनुष्य को स्वार्थी, निकम्मा, भाव-विहीन और अँधा पशु बना दिया है | आज के इस भागते युग में आम आदमी भी आम नहीं रह गया है, अपनी-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में ही दिन व्यतीत करता जा रहा है | अगर कोई पुत्र अपने माता-पिता की देखभाल करता भी है तो वह या तो मजबूरी में या फिर लालच में, बहुत ही खरी बात है पर बिल्कुल सटीक व सही | कोई सहर्ष स्वीकार नहीं करेगा पर यही हकीकत है वह दिल से या खुशी-खुशी अपने माता-पिता की सेवा नहीं करता |
आज देश ने तरक्की तो बहुत कर ली है पर उस तरक्की की नींव ही खोखली होती जा रही है | हमारा 'भारत-वर्ष' जहाँ सभ्य समाज की मिसाल माना जाता था आज वो सभ्यता कहाँ है ? जहाँ 'अतिथि देवो भवः' वहाँ अतिथि बोझ बन गया है, अपने-पराये का भेद करना मुश्किल है | जहाँ एक तरफ तो हिन्दू, मुस्लिम से, सिक्ख, ईसाई से अन्तर्जातीय- विवाह कर रहा है, इससे ये तो साबित होता है कि हम विचारों से बहुत ऊपर उठ चुकें हैं, जाति का बंधन नहीं रहा, हम-सब एक ईश्वर की संतान हैं, हम सबका मालिक एक है जातिवाद हट चुका है जो आज से लगभग हमारे अनुभव के अनुसार २०-२५ वर्ष पहले नहीं था | ये बहुत ही अच्छी बात है और बाहरी देशों की तरह हमारा देश भी अब जाति का बंधन नहीं मानता पर क्या एक परिवार में एक ही पिता की चार संतानें एक होकर रह पा रहीं हैं ? नहीं २०-२५ वर्ष पहले ये संभव था, सहज था, आम बात थी | कोई परिवार से अलग होता ही नहीं था | कोई मजबूरी हो,बाहर नौकरी-पेशा हो तो अलग बात थी पर चार भाई अलग होने की सोच ही नहीं सकते थे,ऐसी सोच ही नहीं विकसित थी पर आज के युग में ये ज़रूरत बन चुकी है | कोई किसी के साथ समझौता नहीं करना चाहता, त्याग की भावना तो रह ही नहीं गई | हर आदमी अपने लिए, अपने स्वार्थ के लिए, अपने सुख के लिए केवल जीना चाहता है | ये तो थी एक परिवार की बात, आम आदमी में जब परोपकार व त्याग की भावना रह ही नहीं गई तो फिर उसके अंदर सहन-शक्ति भी कहाँ बच पाई उसके रस्ते में जो भी आ रहा है, या जो उसकी बातें नहीं मान रहा है, तुरंत तमन्चा निकाल कर सामने वाले को मौत के घाट उतार दे रहा है | ये है हमारे देश की स्वतंत्रता जिसके लिये बापू ने अनशन किया था | जिस सुखद भविष्य की इच्छा से बापू ने अहिंसा की राह पर चलकर देश को आज़ादी दिलवाई क्या वो देश सुरक्षित है ? अपने ही घर वालों से ? जो आपस में ही मार-काट कर रहें हैं ? क्रोध, हिंसा व बेइमानी का राज हो गया है ? जिस देश में स्वतंत्रता-सेनानी, स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी जान दाँव पर लगा देते थे वहाँ अब 'स्वान्तःसुखाय' का शासन चल रहा है | शायद कुछ ज्यादा ही स्वतंत्रता सबको दे दी गई | हर आदमी के पास हथियार कहाँ से आ जाता है ? वो अपनी सुरक्षा के लिये हथियार रखता है या फिर लोगों में खौफ बाँटने के लिये ? सरकार को चाहिए कि हर आम व्यक्ति के पास
''ऐ मेंरे वतन के लोगों,ज़रा आँख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी''
डा. प्रीति गुप्ता
लखनऊ
waqai kadawa parantu sach hai, phir bhi hamari sabhyata abhi mrit nhi hui hai, bimar ho gayi hai, jarurat hai vicharon ke adan pradan ke, aj hum baten bhotikta ki karte hai, jarurat hai adyatma ki, satsang me bhi rajniti aur corporate bad ki charcha hoti hai, pukar hai shuru karen hum baten sanskar ki apne pyar ki
ReplyDeleteaapne sahi baat kahi hai yahi ho raha hai
ReplyDeleteis lekh ke liye aapko badhai
rachana
बहुत अच्छी बाते लिखी है आपने........ बिलकुल सत्य है.......
ReplyDeleteमै कहूँगा की आप अपने ब्लॉग का थोडा सा सौन्दर्यीकरण करे....... अच्छा रहेगा.......
मनोज
प्रीति जी सही विषय सार्थक लेख एवं संदेश ....
ReplyDeleteआप सभी मित्रों के विचारों का स्वागत है..यह लेख आप सभी को पसंद आया इसके लिये आप सभी का आभार एवं हार्दिक धन्यवाद ! मनोज जी मौका मिला तो अपने ब्लॉग का सौन्दर्यीकरण अवश्य करेंगे इस सुझाव के लिये आपक धन्यवाद .... :)
ReplyDeleteIt's very thoughtful and thank you to again share it actually it's need and we have to act to save our values and family
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